उदयपुर के महलों
में
राणा
जी
ने
आपात
सभा
बुला
रखी
थी।
सभा
में
बैठे
हर
सरदार
के
चेहरे
पर
चिंता
की
लकीरें
साफ़
नजर
आ
रही
थी,
आँखों
में
गहरे
भाव
नजर
आ
रहे
थे
सबके
हाव
भाव
देखकर
ही
लग
रहा
था
कि
किसी
तगड़े
दुश्मन
के
साथ
युद्ध
की
रणनीति
पर
गंभीर
विचार
विमर्श
हो
रहा
है।
सभा
में
प्रधान
की
और
देखते
हुए
राणा
जी
ने
गंभीर
होते
हुए
कहा-
“इन मराठों
ने
तो
आये
दिन
हमला
कर
सिर
दर्द
कर
रखा
है।”
“सिर
दर्द
क्या
रखा
है
? अन्नदाता
! इन
मराठों
ने
तो
पूरा
मेवाड़
राज्य
ही
तबाह
कर
रखा
है,
गांवों
को
लूटना
और
उसके
बाद
आग
लगा
देने
के
अलावा
तो
ये
मराठे
कुछ
जानते
ही
नहीं
!” पास
ही
बैठे
एक
सरदार
ने
चिंता
व्यक्त
करते
हुए
कहा।
“इन मराठों
जैसी
दुष्टता
और
धृष्टता
तो
बादशाही
हमलों
के
समय
मुसलमान
भी
नहीं
करते
थे।
पर
इन
मराठों
का
उत्पात
तो
मानवता
की
सारी
हदें
ही
पार
कर
रहा
है।
मुसलमान
ढंग
से
लड़ते
थे
तो
उनसे
युद्ध
करने
में
भी
मजा
आता
था
पर
ये
मराठे
तो
लूटपाट
और
आगजनी
कर
भाग
खड़े
होते
है।”
एक
और
सरदार
ने
पहले
सरदार
की
बात
को
आगे
बढाया।
सभा में
इसी
तरह
की
बातें
सुन
राणा
जी
और
गंभीर
हो
गए,
उनकी
गंभीरता
उनके
चेहरे
पर
स्पष्ट
नजर
आ
रही
थी।
मराठों की सेना
मेवाड़
पर
हमला
कर
लूटपाट
व
आगजनी
करते
हुए
आगे
बढ़
रही
थी
मेवाड़
की
जनता
उनके
उत्पात
से
बहुत
आतंकित
थी।
उन्हीं
से
मुकाबला
करने
के
लिए
आज
देर
रात
तक
राणा
जी
मुकाबला
करने
के
लिए
रणनीति
बना
रहे
थे
और
मराठों
के
खिलाफ
युद्ध
की
तैयारी
में
जुटे
थे।
अपने
ख़ास
ख़ास
सरदारों
को
बुलाकर
उन्हें
जिम्मेदारियां
समझा
रहे
थे।
तभी
प्रधान
जी
ने
पूरी
परिस्थिति
पर
गौर
करते
हुए
कहा-
“खजाना
रुपयों
से
खाली
है।
मराठों
के
आतंक
से
प्रजा
आतंकित
है।
मराठों
की
लूटपाट
व
आगजनी
के
चलते
गांव
के
गांव
खाली
हो
गए
और
प्रजा
पलायन
करने
में
लगी
है।
राजपूत
भी
अब
पहले
जैसे
रहे
नहीं
जो
इन
उत्पातियों
को
पलक
झपकते
मार
भगा
दे
और
ऐसे
दुष्टों
के
हमले
झेल
सके।”
प्रधान के मुंह
से
ऐसी
बात
सुन
पास
ही
बैठे
एक
राजपूत
सरदार
ने
आवेश
में
आकर
बोला
–“पहले
जैसे
राजपूत
अब
क्यों
नहीं
है
? कभी
किसी
संकट
में
पीछे
हटे
है
तो
बताएं
? आजतक
हम
तो
गाजर
मुली
की
तरह
सिर
कटवाते
आये
है
और
आप
कह
रहें
है
कि
पहले
जैसे
राजपूत
नहीं
रहे
! पिछले
दो
सौ
वर्षों
से
लगातार
मेवाड़
पर
हमले
हो
रहे
है
पहले
मुसलमानों
के
और
अब
इन
मराठों
के।
रात
दिन
सतत
चलने
वाले
युद्धों
में
भाग
लेते
लेते
राजपूतों
के
घरों
की
हालत
क्या
हो
गयी
है
? कभी
देखा
है
आपने
! कभी
राजपूतों
के
गांवों
में
जाकर
देखो
एक
एक
घर
में
दस
दस
शहीदों
की
विधवाएं
बैठी
मिलेंगी।
फिर
भी
राजपूत
तो
अब
भी
सिर
कटवाने
के
लिए
तैयार
है।
बस
एक
हुक्म
चाहिए
राणा
जी
का!
मराठा
तो
क्या
खुद
यमराज
भी
आ
जायेंगे
तब
भी
मेवाड़
के
राजपूत
पीठ
नहीं
दिखायेंगे।”
ये सुन
राणा
बोले-
“राज
पाने
व
बचाने
के
लिए
गाजर
मुली
की
तरह
सिर
कटवाने
ही
पड़ते
है,
इसीलिए
तो
कहा
जाता
है
कि
राज्य
का
स्वामी
बनना
आसान
नहीं।
स्वराज्य
बलिदान
मांगता
है
और
हम
राजपूतों
ने
अपने
बलिदान
के
बूते
ही
यह
राज
हासिल
किया
है।
धरती
उसी
की
होती
है
जो
इसे
खून
से
सींचने
के
लिए
तैयार
रहे।
हमारे
पूर्वजों
ने
मेवाड़
भूमि
को
अपने
खून
से
सींचा
है।
इसकी
स्वतंत्रता
के
लिए
जंगल
जंगल
ठोकरे
खायी
है।
मातृभूमि
की
रक्षा
के
लिए
घास
की
रोटियां
खाई
है,
और
अब
ये
लुटरे
इसकी
अस्मत
लुटने
आ
गए
तो
क्या
हम
आसानी
से
इसे
लुट
जाने
दे
? अपने
पूर्वजों
के
बलिदान
को
यूँ
ही
जाया
करें?
इसलिए
बैठकर
बहस
करना
छोड़े
और
मराठों
को
माकूल
जबाब
देने
की
तैयारी
करें।”
राणा की बात
सुनकर
सभा
में
चारों
और
चुप्पी
छा
गयी।
सबकी
नजरों
के
आगे
सामने
आई
युद्ध
की
विपत्ति
का
दृश्य
घूम
रहा
था।
मराठों
से
मुकाबले
के
लिए
इतनी
तोपें
कहाँ
से
आएगी?
खजाना
खाली
है
फिर
सेना
के
लिए
खर्च
का
बंदोबस्त
कैसे
होगा?
सेना
कैसे
संगठित
की
जाय?
सेना
का
सेनापति
कौन
होगा?
साथ
ही
इन्हीं
बिन्दुओं
पर
चर्चा
भी
होने
लगी।
आखिर चर्चा
पूरी
होने
के
बाद
राणा
जी
ने
अपने
सभी
सरदारों
व
जागीरदारों
के
नाम
एक
पत्र
लिख
कर
उसकी
प्रतियाँ
अलग-अलग
घुड़सवारों
को
देकर
तुरंत
दौड़ाने
का
आदेश
दिया।
पत्र में
लिखा
था-“मेवाड़
राज्य
पर
उत्पाती
मराठों
ने
आक्रमण
किया
है
उनका
मुकाबला
करने
व
उन्हें
मार
भगाने
के
लिए
सभी
सरदार
व
जागीरदार
यह
पत्र
पहुँचते
ही
अपने
सभी
सैनिकों
व
अस्त्र-शस्त्रों
के
साथ
मेवाड़
की
फ़ौज
में
शामिल
होने
के
लिए
बिना
कोई
देरी
किये
जल्द
से
जल्द
हाजिर
हों।”
पत्र में
राणा
जी
के
दस्तखत
के
पास
ही
राणा
द्वारा
लिखा
था-
“जो
जागीरदार
इस
संकट
की
घडी
में
हाजिर
नहीं
होगा
उसकी
जागीर
जब्त
कर
ली
जाएगी।
इस
मामले
में
किसी
भी
तरह
की
कोई
रियायत
नहीं
दी
जाएगी
और
इस
हुक्म
की
तामिल
ना
करना
देशद्रोह
व
हरामखोरी
माना
जायेगा।”
राणा का एक
सवार
राणा
का
पत्र
लेकर
मेवाड़
की
एक
जागीर
कोसीथल
पहुंचा
और
जागीर
के
प्रधान
के
हाथ
में
पत्र
दिया।
प्रधान
ने
पत्र
पढ़ा
तो
उसके
चेहरे
की
हवाइयां
उड़
गयी।
कोसीथल
चुंडावत
राजपूतों
के
वंश
की
एक
छोटीसी
जागीर
थी
और
उस
वक्त
सबसे
बुरी
बात
यह
थी
कि
उस
वक्त
उस
जागीर
का
वारिस
एक
छोटा
बच्चा
था।
कोई
दो
वर्ष
पहले
ही
उस
जागीर
के
जागीरदार
ठाकुर
एक
युद्ध
में
शहीद
हो
गए
थे
और
उनका
छोटा
सा
इकलौता
बेटा
उस
वक्त
जागीर
की
गद्दी
पर
था।
इसलिए
जागीर
के
प्रधान
की
हवाइयां
उड़
रही
थी।
राणा
जी
का
बुलावा
आया
है
और
गद्दी
पर
एक
बालक
है
वो
कैसे
युद्ध
में
जायेगा?
प्रधान
के
आगे
एक
बहुत
बड़ा
संकट
आ
गया।
सोचने
लगा-“क्या
इन
मराठों
को
भी
अभी
हमला
करना
था।
कहीं
ईश्वर
उनकी
परीक्षा
तो
नहीं
ले
रहा?”
प्रधान राणा
का
सन्देश
लेकर
जनाना
महल
के
द्वार
पर
पहुंचा
और
दासी
की
मार्फ़त
माजी
साहब
(जागीरदार
बच्चे
की
विधवा
माँ)
को
आपात
मुलाकात
करने
की
अर्ज
की।
दासी के मुंह
से
प्रधान
द्वारा
आपात
मुलाकात
की
बात
सुनते
ही
माजी
साहब
के
दिल
की
धडकनें
बढ़
गयी-“पता
नहीं
अचानक
कोई
मुसीबत
तो
नहीं
आ
गयी?”
खैर.. माजी
साहब
ने
तुरंत
प्रधान
को
बुलाया
और
परदे
के
पीछे
खड़े
होकर
प्रधान
का
अभिवादन
स्वीकार
करते
हुए
पत्र
प्राप्त
किया।
पत्र
पढ़ते
ही
माजी
साहब
के
मुंह
से
सिर्फ
एक
छोटा
सा
वाक्य
ही
निकला-“हे
ईश्वर
! अब
क्या
होगा?”
और वे प्रधान
से
बोली-“अब
क्या
करें
? आप
ही
कोई
सलाह
दे!
जागीर
के
ठाकुर
साहब
तो
आज
सिर्फ
दो
ही
वर्ष
के
बच्चे
है
उन्हें
राणा
जी
की
चाकरी
में
युद्ध
के
लिए
कैसे
ले
जाया
जाय
?
तभी माजी
के
बेटे
ने
आकर
माजी
साहब
की
अंगुली
पकड़ी।
माजी
ने
बेटे
का
मासूम
चेहरा
देखा
तो
उनके
हृदय
ममता
से
भर
गया।
मासूम
बेटे
की
नजर
से
नजर
मिलते
ही
माजी
के
हृदय
में
उसके
लिए
उसकी
जागीर
के
लिए
दुःख
उमड़
पड़ा।
राणा
जी
द्वारा
पत्र
में
लिखे
आखिरी
वाक्य
माजी
साहब
के
नजरों
के
आगे
घुमने
लगे-“हुक्म
की
तामिल
नहीं
की
गयी
तो
जागीर
जब्त
कर
ली
जाएगी।
देशद्रोह
व
हरामखोरी
समझा
जायेगा
आदि
आदि।”
पत्र के आखिरी
वाक्यों
ने
माजी
सा
के
मन
में
ढेरों
विचारों
का
सैलाब
उठा
दिया-“जागीर
जब्त
हो
जाएगी
! देशद्रोह
व
हरामखोरी
समझा
जायेगा!
मेरा
बेटा
अपने
पूर्वजों
के
राज्य
से
बाहर
बेदखल
हो
जायेगा
और
ऐसा
हुआ
तो
उनकी
समाज
में
कौन
इज्जत
करेगा?
पर
उसका
आज
बाप
जिन्दा
नहीं
है
तो
क्या
हुआ
? मैं
माँ
तो
जिन्दा
हूँ!
यदि
मेरे
जीते
जी
मेरे
बेटे
का
अधिकार
छिना
जाए
तो
मेरा
जीना
बेकार
है
ऐसे
जीवन
पर
धिक्कार।
और
फिर
मैं
ऐसी
तो
नहीं
जो
अपने
पूर्वजों
के
वंश
पर
कायरता
का
दाग
लगने
दूँ,
उस
वंश
पर
जिसनें
कई
पीढ़ियों
से
बलिदान
देकर
इस
भूमि
को
पाया
है
मैं
उनकी
इस
बलिदानी
भूमि
को
ऐसे
आसानी
से
कैसे
जाने
दूँ
?
ऐसे विचार
करते
हुए
माजी
सा
की
आँखों
वे
दृश्य
घुमने
लगे
जो
युद्ध
में
नहीं
जाने
के
बाद
हो
सकते
थे-
“कि
उनका
जवान
बेटा
एक
और
खड़ा
है
और
उसके
सगे-संबंधी
और
गांव
वाले
बातें
कर
रहें
है
कि
इन्हें
देखिये
ये
युद्ध
में
नहीं
गए
थे
तो
राणा
जी
ने
इनकी
जागीर
जब्त
कर
ली
थी।
वैसे
इन
चुंडावतों
को
अपनी
बहादुरी
और
वीरता
पर
बड़ा
नाज
है
हरावल
में
भी
यही
रहते
है।”
और
ऐसे
व्यंग्य
शब्द
सुन
उनका
बेटा
नजरें
झुकाये
दांत
पीस
कर
जाता
है।
ऐसे
ही
दृश्यों
के
बारे
में
सोचते
सोचते
माजी
सा
का
सिर
चकराने
लगा
वे
सोचने
लगे
यदि
ऐसा
हुआ
तो
बेटा
बड़ा
होकर
मुझ
माँ
को
भी
धिक्कारेगा।
ऐसे विचारों
के
बीच
ही
माजी
सा
को
अपने
पिता
के
मुंह
से
सुनी
उन
राजपूत
वीरांगनाओं
की
कहानियां
याद
आ
गयी
जिन्होंने
युद्ध
में
तलवार
हाथ
में
ले
घोड़े
पर
सवार
हो
दुश्मन
सेना
को
गाजर
मुली
की
तरह
काटते
हुए
खलबली
मचा
अपनी
वीरता
का
परिचय
दिया
था।
दुसरे
उदाहरण
क्यों
उनके
ही
खानदान
में
पत्ताजी
चुंडावत
की
ठकुरानी
उन्हें
याद
आ
गयी
जिसनें
अकबर
की
सेना
से
युद्ध
किया
और
अकबर
की
सेना
पर
गोलियों
की
बौछार
कर
दी
थी।
जब
इसी
खानदान
की
वह
ठकुरानी
युद्ध
में
जा
सकती
थी
तो
मैं
क्यों
नहीं
? क्या
मैं
वीर
नहीं
? क्या
मैंने
भी
एक
राजपूतानी
का
दूध
नहीं
पिया
? बेटा
नाबालिग
है
तो
क्या
हुआ
? मैं
तो
हूँ
! मैं
खुद
अपनी
सैन्य
टुकड़ी
का
युद्ध
में
नेतृत्व
करुँगी
और
जब
तक
शरीर
में
जान
है
दुश्मन
से
टक्कर
लुंगी।
और ऐसे
वीरता
से
भरे
विचार
आते
ही
माजी
सा
का
मन
स्थिर
हो
गया
उनकी
आँखों
में
चमक
आ
गयी,
चेहरे
पर
तेज
झलकने
लगा
और
उन्होंने
बड़े
ही
आत्मविश्वास
के
साथ
प्रधान
जी
को
हुक्म
दिया
कि-
“राणा
जी
हुक्म
सिर
माथे
! आप
युद्ध
की
तैयारी
के
लिए
अपनी
सैन्य
टुकड़ी
को
तैयार
कीजिये
हम
अपने
स्वामी
के
लिए
युद्ध
करेंगे
और
उसमें
जान
की
बाजी
लगा
देंगे।”
प्रधान जी ने
ये
सुन
कहा-
“माजी
सा
! वो
तो
सब
ठीक
है
पर
बिना
स्वामी
के
केसी
फ़ौज
?
माजी सा बोली-
“हम
है
ना
! अपनी
फ़ौज
का
हम
खुद
नेतृत्व
करेंगे।”
प्रधान ने विस्मय
पूर्वक
माजी
सा
की
और
देखा।
यह
देख
माजी
सा
बोली-
“क्या
आजतक
महिलाएं
कभी
युद्ध
में
नहीं
गयी
? क्या
आपने
उन
महिलाओं
की
कभी
कोई
कहानी
नहीं
सुनी
जिन्होंने
युद्धों
में
वीरता
दिखाई
थी
? क्या
इसी
खानदान
में
पत्ताजी
की
ठकुरानी
सा
ने
अकबर
के
खिलाफ
युद्ध
में
भाग
ले
वीरगति
नहीं
प्राप्त
की
थी
? मैं
भी
उसी
खानदान
की
बहु
हूँ
तो
मैं
उनका
अनुसरण
करते
हुए
युद्ध
में
क्यों
नहीं
भाग
ले
सकती
?
बस फिर
क्या
था।
प्रधान
जी
ने
कोसीथल
की
सेना
को
तैयार
कर
सेना
के
कूच
का
नंगारा
बजा
दिया।
माजी
सा
शरीर
पर
जिरह
बख्तर
पहने,
सिर
पर
टोप,
हाथ
में
तलवार
और
गोद
में
अपने
बालक
को
बिठा
घोड़े
पर
सवार
हो
युद्ध
में
कूच
के
लिए
पड़े।
कोसीथल की फ़ौज
के
आगे
आगे
माजी
सा
जिरह
वस्त्र
पहने
हाथ
में
भाला
लिए
कमर
पर
तलवार
लटकाये
उदयपुर
पहुँच
हाजिरी
लगवाई
कि-“कोसीथल
की
फ़ौज
हाजिर
है।
अगले दिन
मेवाड़
की
फ़ौज
ने
मराठा
फ़ौज
पर
हमला
किया।
हरावल
(अग्रिम
पंक्ति)
में
चुंडावतों
की
फ़ौज
थी
जिसमें
माजी
सा
की
सैन्य
टुकड़ी
भी
थी।
चुंडावतों
के
पाटवी
सलूम्बर
के
राव
जी
थे
उन्होंने
फ़ौज
को
हमला
करने
का
आदेश
के
पहले
संबोधित
किया-
“वीर
मर्द
राजपूतो
! मर
जाना
पर
पीठ
मत
दिखाना।
हमारी
वीरता
के
बल
पर
ही
हमारे
चुंडावत
वंश
को
हरावल
में
रहने
का
अधिकार
मिला
है
जिसे
हमारे
पूर्वजों
ने
सिर
कटवाकर
कायम
रखा
है।
हरावल
में
रहने
की
जिम्मेदारी
हर
किसी
को
नहीं
मिल
सकती
इसलिए
आपको
पूरी
जिम्मेदारी
निभानी
है
मातृभूमि
के
लिए
मरने
वाले
अमर
हो
जाते
है
अत:
मरने
से
किसी
को
डरने
की
कोई
जरुरत
नहीं!
अब
खेंचो
अपने
घोड़ों
की
लगाम
और
चढ़ा
दो
मराठा
सेना
पर।”
माजी सा ने
भी
अन्य
वीरों
की
तरह
एक
हाथ
से
तलवार
उठाई
और
दुसरे
हाथ
से
घोड़े
की
लगाम
खेंच
घोड़े
को
ऐड़
लगादी।
युद्ध
शुरू
हुआ,
तलवारें
टकराने
लगी,
खच्च
खच्च
कर
सैनिक
कट
कट
कर
गिरने
लगे,
तोपों,
बंदूकों
की
आवाजें
गूंजने
लगी।
हर
हर
महादेव
केनारों
से
युद्ध
भूमि
गूंज
उठी।
माजी
सा
भी
बड़ी
फुर्ती
से
पूरी
तन्मयता
के
साथ
तलवार
चला
दुश्मन
के
सैनिकों
को
काटते
हुए
उनकी
संख्या
कम
कर
रही
थी
कि
तभी
किसी
दुश्मन
ने
पीछे
से
उन
पर
भाले
का
एक
वार
किया
जो
उनकी
पसलियाँ
चीरता
हुआ
निकल
गया
और
तभी
माजी
सा
के
हाथ
से
घोड़े
की
लगाम
छुट
गयी
और
वे
नीचे
धम्म
से
नीचे
गिर
गए।
साँझ
हुई
तो
युद्ध
बंद
हुआ
और
साथी
सैनिकों
ने
उन्हें
अन्य
घायल
सैनिकों
के
साथ
उठाकर
वैध
जी
के
शिविर
में
इलाज
के
लिए
पहुँचाया।
वैध
जी
घायल
माजी
सा
की
मरहम
पट्टी
करने
ही
लगे
थे
कि
उनके
सिर
पर
पहने
लोहे
के
टोपे
से
निकल
रहे
लंबे
केश
दिखाई
दिए।
वैध
जी
देखते
ही
समझ
गए
कि
यह
तो
कोई
औरत
है।
बात
राणा
जी
तक
पहुंची-
“घायलों
में
एक
औरत
! पर
कौन
? कोई
नहीं
जानता।
पूछने
पर
अपना
नाम
व
परिचय
भी
नहीं
बता
रही।”
सुनकर राणा
जी
खुद
चिकित्सा
शिविर
में
पहुंचे
उन्होंने
देखा
एक
औरत
जिरह
वस्त्र
पहने
खून
से
लथपथ
पड़ी।
पुछा
–
“कृपया
बिना
कुछ
छिपाये
सच
सच
बतायें
! आप
यदि
दुश्मन
खेमें
से
भी
होगी
तब
भी
मैं
आपका
अपनी
बहन
के
समान
आदर
करूँगा।
अत:
बिना
किसी
डर
और
संकोच
के
सच
सच
बतायें।”
घायल माजी
सा
ने
जबाब-
“कोसीथल
ठाकुर
साहब
की
माँ
हूँ
अन्नदाता
!”
सुनकर राणा
जी
आश्चर्यचकित
हो
गए।
पुछा-
“आप
युद्ध
में
क्यों
आ
गई?”
“अन्नदाता
का
हुक्म
था
कि
सभी
जागीरदारों
को
युद्ध
में
शामिल
होना
है
और
जो
नहीं
होगा
उसकी
जागीर
जब्त
करली
जाएगी।
कोसीथल
जागीर
का
ठाकुर
मेरा
बेटा
अभी
मात्र
दो
वर्ष
का
है
अत:
वह
अपनी
फ़ौज
का
नेतृत्व
करने
में
सक्षम
नहीं
सो
अपनी
फ़ौज
का
नेतृत्व
करने
के
लिए
मैं
युद्ध
में
शामिल
हुई।
यदि
अपनी
फ़ौज
के
साथ
मैं
हाजिर
नहीं
होती
तो
मेरे
बेटे
पर
देशद्रोह
व
हरामखोरी
का
आरोप
लगता
और
उसकी
जागीर
भी
जब्त
होती।”
माजी सा के
वचन
सुनकर
राणा
जी
के
मन
में
उठे
करुणा
व
अपने
ऐसे
सामंतों
पर
गर्व
के
लिए
आँखों
में
आंसू
छलक
आये।
ख़ुशी
से
गद-गद
हो
राणा
बोले-
“धन्य
है
आप
जैसी
मातृशक्ति
! मेवाड़
की
आज
वर्षों
से
जो
आन
बान
बची
हुई
है
वह
आप
जैसी
देवियों
के
प्रताप
से
ही
बची
हुई
है।
आप
जैसी
देवियों
ने
ही
मेवाड़
का
सिर
ऊँचा
रखा
हुआ
है।
जब
तक
आप
जैसी
देवी
माताएं
इस
मेवाड़
भूमि
पर
रहेगी
तब
तक
कोई
माई
का
लाल
मेवाड़
का
सिर
नहीं
झुका
सकता।
मैं
आपकी
वीरता,
साहस
और
देशभक्ति
को
नमन
करते
हुए
इसे
इज्जत
देने
के
लिए
अपनी
और
से
कुछ
पारितोषिक
देना
चाहता
हूँ
यदि
आपकी
इजाजत
हो
तो,
सो
अपनी
इच्छा
बतायें
कि
आपको
ऐसा
क्या
दिया
जाय
? जो
आपकी
इस
वीरता
के
लायक
हो।”
माजी सा सोच
में
पड़
गयी
आखिर
मांगे
तो
भी
क्या
मांगे।
आखिर वे बोली-
“अन्नदाता
! यदि
कुछ
देना
ही
है
तो
कुछ
ऐसा
दें
जिससे
मेरे
बेटे
कहीं
बैठे
तो
सिर
ऊँचा
कर
बैठे।”
राणा जी बोले-
“आपको
हुंकार
की
कलंगी
बख्सी
जाती
है
जिसे
आपका
बेटा
ही
नहीं
उसकी
पीढियां
भी
उस
कलंगी
को
पहन
अपना
सिर
ऊँचा
कर
आपकी
वीरता
को
याद
रखेंगे।”
(लेखक: रतन
सिंह
शेखावत)
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